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कांग्रेस ने संविधान को आपातकाल के जरिए पैरों तले कुचला, वो अब संविधान बचाने के बात कर रहे हैं
भोपाल: 25 जून 2025
लेख: आलोक शर्मा सांसद, भोपाल
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा भारत पर थोपे गए आपातकाल को भारतवासी कभी नहीं भूल सकते हैं। लोकतंत्र को ताक पर रखकर तानाशाही का ऐसा विकृत रूप न तो इससे पहले कभी देखा गया था और न ही इसके बाद कभी देखा जाएगा
संविधान का हवाला देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के संविधान की खुले तौर पर निर्मम हत्या की थी। आपातकाल की मूल वजह 12 जून, 1975 को आया इलाहाबाद हाई कोर्ट का वह फैसला था जिसमें इंदिरा गांधी के रायबरेली से सांसद के तौर पर चुनाव को अवैध करार दिया गया था। 1971 के आम चुनाव में रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिद्वंद्वी राज नारायण ने उनके खिलाफ चुनाव में हेरफेर करने के लिए सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल का आरोप लगाते हुए मामला दर्ज कराया था। दोषी पाए जाने पर हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी को अयोग्य घोषित कर दिया गया था और अगले छह साल के उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी गई थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले से इंदिरा गांधी ने अपना आपा खो दिया था और भारत के संविधान और लोकतंत्र का गला घोंटते हुए मनमाने तरीके से आपातकाल की घोषणा कर दी थी।
इंदिरा गांधी का रेडियो पर संबोधन करते हुए कहती हैं “इसमें घबराने वाली कोई बात नहीं है..” इन शब्दों के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा की थी। लगभग दो साल की अवधि में नागरिक अधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन हुआ था। आपातकाल की घोषणा के कुछ घंटे के भीतर ही प्रमुख समाचार पत्रों के कार्यालयों में बिजली की आपूर्ति काट दी गई थी और जयप्रकाश नारायण, राज नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, राजमाता सिंधिया, जार्ज फर्नाडिस सहित कई विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था।
भारतीय संविधान का (39वाँ संशोधन) अधिनियम, 1975 प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को शून्य घोषित करने वाले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के जवाब में अधिनियमित किया गया था। इस अधिनियम द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा लोक सभा अध्यक्ष से जुड़े विवादों को न्यायपालिका के दायरे से बाहर कर दिया गया था तथा कुछ महत्त्वपूर्ण अधिनियमों को नौवीं अनुसूची में शामिल कर दिया गया था। वास्तव में यह तीसरा एवं सर्वाधिक विवादास्पद राष्ट्रीय आपातकाल कांग्रेस की विचारधारा और इंदिरा गांधी का असली चेहरा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा की थी। यह आपातकाल 21 मार्च 1977 तक चला था। आपातकाल लगने से देश रातों रात जेलखाने में तब्दील हो गया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था।
आपातकाल के मुखर आलोचक रहे फिल्मी कलाकारों को भी इसका दंश झेलना पड़ा था। किशोर कुमार के गानों को रेडियो और दूरदर्शन पर बजाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। देव आनंद को भी प्रतिबंध का सामना करना पड़ा था। आपातकाल में नसबंदी सबसे दमनकारी अभियान था। यह फैसला लागू कराने का जिम्मा संजय गांधी पर था। अपने आप को साबित करने के लिए संजय गांधी ने इस फैसले को लेकर बेहद कड़ा रुख अपनाया था। इस दौरान घरों में घुसकर, बसों से उतारकर और लोभ लालच देकर लोगों की नसबंदी की गई। एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ एक साल के भीतर देशभर में 60 लाख से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गई थी। मनमाने तरीके से भारतीय संविधान का (42वाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 पारित कर केंद्र सरकार एवं प्रधानमंत्री कार्यालय की शक्ति में महत्त्वपूर्ण वृद्धि की गई थी। इसके तहत
राज्यों में सशस्त्र बलों की तैनाती की अनुमति देकर तथा आपातकाल के दौरान राज्य के कानूनों को दरकिनार करके केंद्र सरकार के नियंत्रण में असीमित वृद्धि की गई थी। कानूनों एवं संशोधनों की न्यायिक समीक्षा को सीमित कर न्यायपालिका के अधिकार छीन लिए गए थे। संसद तथा राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में वृद्धि कर दी गई थी। राष्ट्र-विरोधी व्यवहार के मामलों में मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले नियम बना दिए गए थे।
आपातकाल में आंतरिक सुरक्षा का रखरखाव अधिनियम (मीसा) एवं भारत रक्षा नियम (डीआईआर) के तहत लोगों पर अत्याचार किया गया था। लोकतांत्रिक संस्थाओं को क्षत-विक्षत किया गया था। मीडिया पर कठोर नियंत्रण द्वारा असहमति को दबा दिया गया और साथ ही सूचना तक पहुँच सीमित कर दी गई थी। इससे जमीनी स्तर पर आंदोलन तथा भूमिगत प्रेस का उदय हुआ, जो सरकार को चुनौती दे रहे थे और साथ ही मानवाधिकारों की वकालत भी कर रहे थे। लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ सामाजिक न्याय की वकालत करने वाले युवाओं के नेतृत्व वाले आंदोलन सामने आए थे। बिहार में जयप्रकाश नारायण द्वारा सामाजिक एवं राजनीतिक सुधारों की वकालत हेतु एक आंदोलन चलाया गया था। जॉर्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में हुई रेलवे हड़ताल में सरकारी नीतियों के विरुद्ध श्रमिक एकजुटता तथा असंतोष का एक शक्तिशाली प्रदर्शन किया गया था।
आपातकाल के दौरान न्यायिक सक्रियता की अस्थिर भूमिका प्रकाश में आई थी। एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला, 1976 में आपातकाल के दौरान मूल अधिकारों के निलंबन को बरकरार रखने का निर्णय किया गया। इसमें यह तर्क दिया गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये सरकार द्वारा जीवन के अधिकार को प्रतिबंधित किया जा सकता है। इस निर्णय से मूल अधिकारों की रक्षा प्रभावित हुई जिससे जनाक्रोश हुआ और सरकार पर न्यायिक समीक्षा के अतिक्रमण का आरोप लगाया गया। आपातकाल के दौरान हिरासत में लिये गए व्यक्तियों द्वारा दायर की गई इन याचिकाओं में सरकार की कार्रवाइयों को चुनौती दी गई थी।
एक बार फिर उस बुरे दौर पर नजर डालते हैं। राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा कर दी है। इसमें घबराने वाली कोई बात नहीं है.. रेडियो पर इन शब्दों के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा की थी। लगभग दो साल की अवधि में नागरिक अधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन हुआ था। आपातकाल की घोषणा के कुछ घंटे के भीतर ही प्रमुख समाचार पत्रों के कार्यालयों में बिजली की आपूर्ति काट दी गई थी और जयप्रकाश नारायण, राज नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, राजमाता सिंधिया, जार्ज फर्नांडिस सहित कई विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। इस दौरान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 का उपयोग करते हुए इंदिरा गांधी ने खुद को असाधारण शक्तियां प्रदान कर संविधान और लोकतंत्र की हत्या की थी।
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